उषा काल में तोरण 
भारत के गुजरात में स्थित व ड न ग र एक प्राचीन नगर है। उस का ज्ञात इतिहास ईसा से पूर्व २,५०० वर्ष तक पहुंचता है। यहां हुए पुरातात्त्विक अन्वेषण यह प्रस्थापित करते हैं कि आज से ४,५०० वर्ष पूर्व यह जगह पर कृषि पर आधारित समाज की वसाहत थी। आज के शर्मिष्ठा सरोवर के किनारे हुए पुरातात्त्विक उत्खनन सें मिट्टी के बर्तनों के टूकडे, कपडे के अंश, गहने, ओजार, इत्यादि चीजें पायी गयी हैं। कुछ पुरातत्वविद सुचित करते हैं कि यह भी एक हरप्पा वसाहत थी।

सुबह में शर्मिष्ठा सरोवर
सब से पहले यहां जो मानव वसाहत बनी वह अरवल्ली की पर्वतमाला से बहती कपिला नदी के किनारे थी। यह नदी का पानी शर्मिष्ठा सरोवर में भरता था। आगे जा कर वसाहत उस तरफ फैली। ऐसा माना जाता है कि यहाँ बसे हुए लोगों ने धीरे धीरे एक बडे सांस्कृतिक नगर की रचना कर डाली। आज भी शर्मिष्ठा इस नगर को अनूठी शोभा प्रदान करता है। उगते हुए सूर्य के प्रकाश में यह झील अत्यंत सुंदर दिखाई देती है।


नगर एक टीले पर
वर्तमान नगर एक टीले पर बसा हुआ है। यह कोई प्राकृतिक टीला नहीं है, लेकिन मानव-सर्जित टीला है। भूतकाल में यहां इमारतें बनी और नष्ट हुई; और उस के उपर फिर से नयी इमारतें बनी। इस तरह टीला बनता चला। आज यह टीले की ऊंचाई करीब सात मीटर से बीस मीटर तक है। इसके भूतल में पुराने नगरों के अवशेष दबे पडे हैं। यहाँ जब कोई नयी इमारत के लिए खुदाई होती है तो पुराने घरों के अवशेष अवश्य निकल आते हैं। पुरातत्वविदों का मानना है कि वर्त्तमान नगर के नीचे पुराने नगरों के कुल मिलाकर पाँच से सात स्तर हो सकते हैं। इन स्तरों में हजारों वर्षों का रसप्रद इतिहास भरा पडा है।

चमत्कारपुर - एक जादुई जगह
चार हजार वर्ष अधिक से पूर्व यह नगर चमत्कारपुर के नाम से जाना जाता था। यह नाम उसे चमत्कार नाम के बडे शक्तिशाली राजा ने दिया। चमत्कार राजा कुष्ठ रोग से पीड़ित था। कोई ऋषि ने उसे बताया कि शक्तितिर्थ नामक सरोवर के पानी में स्नान करने से उसका रोग मिट सकता है। यह शक्तितिर्थ प्राचीन वडनगर में था। यहाँ स्नान करने के बाद चमत्कार राजा सचमुच में कुष्ठ रोग से मुक्त हो गया। तो बहुत प्रसन्न हो कर उसने यह नगर को बडे महालयों और मंदिरों से सुन्दर बना दिया। चमत्कारपुर याज्ञवल्क्य ऋषि का नगर था। याज्ञवल्क्य को 'वेद के ज्ञाता' के नाम से जाना जाता है। नगर ने कई विद्वानों को आकर्षित किया और वह शिक्षा का बड़ा केन्द्र बन गया।



सप्तर्षि
शर्मिष्ठा सरोवर से पूर्व में करिब एक किलोमीटर की दूरी पर “विश्वामित्री” तालाब है । उसका एक किनारा “सप्तर्षि” कहलाता है । यह तालाब में वही कपिला नदी पानी डालती है, जो शर्मिष्ठा को अपने पानी से भरती है । प्राचीन काल में इस तालाब के सभी किनारे सुंदर नक्काशीवाले पत्थरों से बंधे हुए थे और उस के चारों ओर नयनरम्य महालय एवं देवालय बनाये गये थे । आजकल इनके कुछ एक भग्नावशेष ही बच पायें हैं, लेकिन इनसे पुराने समय में यहां बंधी हुइ इमारतों की भव्यता और सुंदरता की झांकी अवश्य होती है । वर्तमान में वडनगर में जो भी पुराने अवशेष पाये जाते हैं, इन में “विश्वामित्री” के अवशेष निःशंक सब से पुराने हैं । ऐसा माना जाता है कि यहां पर ही पुराण-प्रसिध्ध याज्ञवल्क्य ऋषि का आश्रम था और वहां सारे भारतवर्ष से विद्यार्थी ज्ञान प्राप्ति हेतु आया करते थे । याज्ञवल्क्य के पुत्र कात्यायन भी बहुत बडे ऋषि माने जाते थे । वही कात्यायन ने यहां “वास्तुपद” और “महागणपती” नामक दो बडे मंदिरों का निर्माण करवाया था ।



आनर्त प्रदेश की राजधानी
महाभारत काल के पूर्व के समय में आज का गुजरात प्रदेश 'आनर्त प्रदेश' नाम से जाना जाता था ; और आज का वडनगर जो उसकी राजधानी थी आनर्तपुर। आनर्तपुर की ख्याति चारों तरफ फैली हुई थी। वह व्यापार और उद्योग का बड़ा केंद्र था। यहाँ कला, संगीत, नृत्य और वास्तुकला का भरपूर विकास हुआ था। हर तरह की साँस्कृतिक प्रवृत्तियां यहाँ पनपी थी। यह नगर एक बडे विद्याधाम के रूप में ख्यात हुआ था। महाभारत के ठीक पूर्व यह नगर अपनी भव्यता की चरम सीमा पर पहुंचा हुआ था।




महाभारत युद्ध में आनर्त योद्धा
महाभारत में आनर्त का संदर्भ अनेक जगह पाया जाता है। उस महा-युद्ध में बहुत से आनर्त योद्धा पांडव और बहुत से कौरव पक्ष से लड़े थे। आनर्तों का सरदार, सत्यकी, जो एक महान योद्धा था, पाण्डवों के सैन्य में एक सेनापति था। उस ओर, कृतवर्मा नामक महान आनर्त योद्धा कौरवों के सैन्य में सेनापति था। यह महा-संग्राम में इतने सारे आनर्त योद्धा हताहत हुए कि उसके पश्चात आनर्तों का सैन्य बहुत निर्बल हो गया। धिरे धिरे उनका इस प्रदेश पर का प्रभाव कम होने लगा और आनर्तपुर का राजकीय आधिपत्य घटता चला।


महान सांस्कृतिक केन्द्र

महाभारत के समय के बाद आनर्तपुर का राजकीय महत्व भले ही कम होता चला हो, मगर उसका साँस्कृतिक स्थान बराबर मजबूत बना रहा। ईसा की पहली सदी में यह नगर उद्योग एवं व्यापार का महत्वपूर्ण स्थल था। इस से उसकी आर्थिक समृद्धि इतनी विपुल थी कि नगर के लोग बडे आनंदित रहते थे। यहाँ हमेशां त्योहारों और उत्सवों की भरमार रहती थी। यहाँ संगीतकारों, न्रुत्यकारों, और अन्य कलाकारों को बहुत सन्मान और धन मिलता था। सारे प्रदेश में यह नगर उत्सव और आनंद के नगर से जाने जाना लगा। और इसका नाम भी बदलकर आनंदपुर हो गया।




यूनानी (Greek) अनुसंधान
ईसा के पूर्व ३२५ में मेसिडोनिया का सिकंदर, कि जो 'महान सिकंदर के नाम से जाने जाना जाता है, अपनी सेना ले कर भारत की और आगे बढ़ा । उसने भारत पर हमला कर के पूरा पश्चिम भारत जीत लिया। लेकिन बाद में वह आगे न बढ़ सका। भारत से यूनान (Greece) वापिस जाते वक्त वह भारत में अपने प्रतिनिधि छोड़ गया। उस की सेना के कई योद्धा, कारीगर, नाच-गान करने वाले, और कुछ अन्य लोग वापिस लौटने की दिक्कतें झेलने के लिए तैयार न थे। उन सब लोगोंने भारत में ही रह जाना मुनासिब माना। ऐसे बहुत यूनानी कच्छ के रास्ते से हो कर आनर्तपुर आए, क्योंकि यही एक नगर सारे प्रदेश में सबसे समृद्ध माना जाता था और उनको आकर्षित करनेवाला था। यूनानी गोरे रंग के थे, वह अपने देश में नगरों में रहते थे, और अनेक देव-देवियों के पूजक थे। उनको आनर्तपुर के नगरजनोंने स्वीकार कर लिया। यूनानी में मर्द ज्यादा और ओरतें कम थी इस लिए कई यूनानी मर्दोंने नगर की ओरतों से विवाह कर लिया। इसी तरह कई अविवाहित यूनानी स्त्रियाँ नगर के पुरुषों से विवाहित हो गई। एक ऐसी मान्यता है कि इसीसे 'नागर' जाती उत्पन्न हुई। वर्त्तमान समय में पुरातत्त्वविदों द्वारा किए गए उत्खननसे यूनान में बनी हुई कई चीजों के अवशेष पाये गए हैं। अब तो इस नगर का यूनानी अनुसंधान था ऐसी मान्यता और भी दृढ हो गई है।


















सातवीं सदी में महान चीनी मुसाफर ह्युएन -संग अपनी भारत यात्रा के दौरान दो बार वडनगर आया। उस समय यह नगर आनंदपुर के नाम से जाना जाता था। सन ६३२ में वडनगर कैसा था उसका वर्णन करते हुए वह लिखता है कि 'आनंदपुर एक धनिक और घनी आबादी वाला शहर है ।' ह्युएन-संग के मुताबिक यहाँ के लोग इतने समृद्ध थे कि नगर में सभ्यता, साहित्य और कला का बहुत विकास हुआ था। यहाँ विभिन्न धार्मिक केन्द्र बने हुए थे। यह बौद्ध साधुओं के लिए विद्या-अभ्यास का उत्तम स्थल माना जता था। नगर में कई बौद्ध और अन्य मन्दिर बने हुए थे।














सन ६३२ में यह नगर
सातवीं सदी का महान चीनी मुसाफर ह्युएन-संग उसकी भारत-यात्रा के दौरान दो बार वडनगर आया। उस समय में यह नगर आनंदपुर के नाम से जाना जाता था। सन ६२७ में ह्युएन-संग चीन के उत्तर-पूर्व छोर से दूर-सुदूर स्थित भारत के लिए निकल पडा और सन ६४३ में स्वदेश वापस लौटा। वह समय और अन्तर को देखते हुए एक बहुत लम्बी, और शायद कठिन, यात्रा थी। ह्युएन-संग अपनी यात्रा का सविस्तार वृत्तांत रखता था और भारत से उसने किताबों का बड़ा संग्रह ईकट्ठा किया था। वर्त्तमान पश्चिम भारत के राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, और महाराष्ट्र के बने हुए प्रदेश में उसने बृहत यात्रा की। उसने जिन शहरों की मुलाक़ात ली उसमें आनंदपुर, वल्लभी, उज्जैन, और भरूच भी समाविष्ट होते है।
ह्युएन-संग ने आनंदपुर पर एक अलग प्रकरण लिखा है। आनंदपुर के बारे में वह लिखता है:
"यह देश का परिघ लगभग २००० ली॰ और राजधानी २० ली॰ है। आबादी घनी है; आवास धनाढ्य हैं। यहाँ कोई मुख्य नरेश नहीं है, लेकिन यह मालवा के अधिकार में है। उसकी उपज, जलवायु, साहित्य, और कानून मालवा के जैसे ही हैं। यहाँ १००० से कम भिख्खुओं के साथ कोई दस संघाराम हैं; यह हिनयान पंथ की सम्मतिया प्रशाखा का अभ्यास करते हैं। यहाँ कई दसियों मन्दिर हैं और विभिन्न साम्प्रदायिक भाव रखनेवाले बार बार उधर जाते है। वल्लभी से पश्चिम में लगभग ५०० लि॰ जाते हुए, हम सौराष्ट्र के प्रदेश में आते हैं ।"

[Ref: SIYUKI: BUDDHIST RECORDS OF THE WESTERN WORLD, First edition: London 1884, Reprint: Delhi,1981, 1994, By Samuel Beal, Motilal Banarasidas Publishers।]



जैन धर्म प्रचलित बनाबौध और जैन धर्म लगभग एक साथ वडनगर में आए । किंतु, जैसा भारत के अन्य प्रदेशों में हुआ, वैसे ही यहाँ से भी आठवीं सदी के बाद बौध धर्म लुप्त हो गया। और यह नगर में जैन धर्म समृद्ध होता चला गया।
यह शान्ति और समृद्धि का काल था। यह नगर हर तरह की औद्योगिक और व्यापारिक गतिविधियों में खूब प्रवृत्त रहा - कपडा का उत्पादन, कपडा का छापकाम और रंगकाम, बर्तन बनाना, कृषि के औजार, बैलगाडी, शिल्प, और कई अन्य उद्योग। उसके बाज़ार नजदीकी और दूरी खरीददारों से भरे रहते थे। यहाँ के व्यापारी श्रीमंत और खुशहाल थे।


मालवा का आक्रमण
कुछ ही समय में ईस नगर की संपत्ति और समृद्धि ने मालवा के नरेशों को आकर्षित किया। उन्हों ने नगर पर हमला किया और उसको अपने अधिकार में कर लिया। मालवा के शासकोंने ने इस नगर का भरपूर शोषण किया। इसकी सुखाकारी पर कोई ध्यान नहीं दिया। उनके लिए यह नगर मालवा के लिए राजस्व इकठ्ठा करने का एक सरहदी शहर बन कर रह गया।


सोलंकीओं ने की किलाबंदी


आनर्त राज्य की अवनति के बाद, पाटन गुजरात की नई राजधानी बना। सन ७४५ में वनराज चावडा ने उसकी स्थापना की। उसकी बहुत तरक्की हुई और सन ९४२ से १२४४ समय में वह सोलंकी शासकों की सत्ता में समृद्धि की चरमसीमा पर पहुँच गया। सारे पश्चिम भारत में उसकी संपत्ति और सभ्यता की बराबरी कर सके ऐसा और कोई शहर नहीं था। सोलंकीओंने वडनगर और उसके सारे प्रदेश से मालवा के शासकों को मार हटाया। यह शहर का मूल्य समझते हुए, सन ११५२ में सोलंकी नरेश कुमारपाल ने शहर के आसपास का किला फिर से बनवाया। प्रायः तेरहवीं सदी के अंत तक सोलंकीओं के अधीन शहर अच्छी तरह सुरक्षित रहा और उसके व्यापार-उद्योग फले-फुले। करीब चार सदियों तक सोलंकी नरेशों के अधिकार तले गुजरात ईतना समृद्ध हुआ कि इतिहासकार उस समय को "सुवर्ण काल" कहतें हैं। समग्र गुजरात के साथ साथ वडनगर ने भी अमन और समृद्धि का अनुभव किया। इस समय में वडनगर और उसके चारों तरफ बहुत से बड़े मन्दिर, प्रासाद, आवास, बाझार, और लोगों की सुविधा के लिए कुँए, तालाब, वाव, कुंद, मार्ग, और धर्मशालाओं का निर्माण हुआ।

तोरण अथवा विजय-स्तम्भ
तोरण अथवा विजय-स्तम्भ वडनगर के प्रमुख ऐतिहासिक स्मारक हैं। तोरण की रचना सोलंकी राजाओं के समय में दशवीं शताब्दी में हुई । शर्मिष्ठा सरोवर के पश्चिम किनारे पर खडे ये दोनों तोरण, सोलंकी शासकों (सन ९४२-१२४२) द्वारा निर्मित हुए माने जाते हैं। शायद वे उत्तर-पूर्व के आक्रमणकारी पर विजय पाने के प्रतिक हैं। अत्यंत सुन्दर दिखते हैं । इनकी ऊंचाई १३ मीटर है । यह लाल पत्थर से बने हुए हैं । उनके शिल्प अत्यंत कलात्मक और बारिक हैं।

तोरण का रहस्य
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ये तोरण वास्तव में किसी बडे प्रासाद अथवा मंदिर के अवशेष हैं। अधिकतर यह संभव है कि आज वे जहाँ स्थित है वह उनकी मूल जगह न भी हो। यह बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि एक दूसरे के समीप ऐसे बेढब तरीके से वे क्यों स्थित हैं। और उनकी आसपास अन्य कोई पुरातन अवशेष भी तो नहीं हैं। कदाचित ऐसा तो नहीं है कि वे कोई दूसरी जगह से उखाड़ कर यहाँ खड़े किए गए हैं? जहांसे शर्मिष्ठा सरोवर में पानी जाता है वह नागधरा और तोरण के बीच का समग्र क्षेत्र कृत्रिम अनियमित टीलों का बना हुआ है। इस विस्तार में बहुत खंडहर थे। लगभग सन १९६० तक इधर भारी संख्या में नक्काशीदार पत्थर की बडी पटियां और मूर्तियां बिखरे पडे थे। आज तो करीब वे सब यहाँ से गायब हो चुके हैं। लेकिन, अगर यहाँ ठीक से उत्खनन किया जाय तो, ये सारा क्षेत्र हमें बहुत कुछ बतला सकता है।


किला और छः दरवाजे
सन ११५२ में सोलंकी नरेश कुमारपाल का बनवाया हुआ छः दरवाजे वाला एक रक्षात्मक किला समग्र पुराने नगर के आसपास था। शर्मिष्ठा सरोवर के तट पर पूर्व दिशा के सन्मुख स्थित, अर्जुनबारी दरवाजे पर लगी पत्थर पर नक्काशी गयी पटिया इसका प्रमाण देती है। आज तो किले की ज्यादातर दीवार नष्ट हो चुकी है, लेकिन छः में से पाँच भव्य दरवाजे लगभग अखण्ड खड़े हैं। हर एक विद्यमान दरवाजा अलग अलग परिकल्पना (डिजाइन) में बनाया गया है। ये उच्च कोटि की कारीगरी का नमूना हैं।


यह सोलंकीओं की सत्ता के उदय का समय था। उन्हों ने पाटन को अपनी राजधानी बनाया और अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया। मालवा के शासकों को वडनगर के प्रदेश से पीछे हटाया गया। इस शहर का महत्व आंकते हुए, सन ११५२ में सोलंकी नरेश कुमारपाल ने उसके आसपास के किला का पुनःनिर्माण किया। लगभग १३वी सदी के अंत तक सोलंकीओं की सत्ता में यह शहर एकदम सुरक्षित रहा और उसके व्यापार-उद्योग फले-फूले।

मंदिरों का नगर
वडनगर हमेशां मंदिरों का नगर रहा है। यहाँ बहुत से देवी-देवताओं के अनेक छोटे-बड़े मन्दिर हैं। इनमेंसे कुछ एक बहुत पुराने हैं और कई नए बने हुए हैं।

नगर में दो बड़े मन्दिर-संकुल हैं - अमथेर माता और हाटकेश्वर। दोनों लाल और पीले पत्थरों से बने हुए हैं। इनके शिल्प अत्यन्त सुंदर हैं। अमथेर माता संकुल उसके सूर्य मन्दिर को लेकर विशेष महत्व रखता है। लेकिन यह मोढेरा के सूर्यमंदिर से बहुत छोटा है।


हाटकेश्वर मन्दिर का निर्माण शास्त्रीय शैली में हुआ है। मन्दिर का मुख पूर्व में है, लेकिन उसके द्वार उत्तर और दक्षिण में भी हैं। तीनों द्वार आपको एक बड़े गुंबजवाले , हवादार, विशाल मध्स्थ कक्ष में ले जाते हैं। यह मध्यस्थ कक्ष के पश्चिम में खरा मन्दिर अर्थात गर्भ-गृह है। इसका फर्श मध्यस्थ कक्ष से कुछ एक सोपान नीचे है। और यहीं पर विख्यात शिवलिंग स्थित है। इसके बहुत ऊपर मन्दिर का शिखर है। पूरा मन्दिर उत्कृष्ट शिल्प और प्रतिमाओं से भरा पडा है। बाहर और अन्दर की दीवारों एवं गुम्बज की भीतरी छत पर पुराण, रामायण, महाभारत, और अन्य धर्मग्रंथों की कथाओं के विभिन्न दृश्यों को साकार करते हुए शिल्प हैं। बिना शिल्प की कोई सतह दिखती ही नहीं है। यह विभूषित शिल्प ही हाटकेश्वर को अन्य मंदिरों से अलग करता है।
दिल्ही सल्तनत आक्रमण करती है
कोई चार सदियों की शान्ति के बाद, वडनगर पर आपद आ पड़ी। गुजरात की संपत्ति से आकर्षित हो कर ताकतवर दिल्ही सल्तनत ने अपने सैन्य को गुजरात की और चलने का हुकम किया। सोलाकियों की राजधानी पाटन उनका लक्ष्य था, लेकिन उनके रास्ते में पहले वडनगर आता था। वडनगर पहुंचते ही सल्तनत के सैन्य ने नगर पर धावा बोल दिया, उसको लुटा, जलाया, और उसके प्रमुख नागरिकों की बेरहम कत्ल की। मजबूत किला कोई काम न आया, क्योंकि शहर के रक्षण के लिए कोई सेना ही न थी। सन १३०४ में दिल्ही सल्तनत ने पूरे गुजरात पर अधिकार कर लिया। शुरू में पाटन ही उसके सूबा का मुख्य शहर रहा, लेकिन सन १४११ में सुलतान अहमदशाह ने अहमदाबाद को अपनी राजधानी बनाया। अब वडनगर का कोई राजकीय महत्त्व रहा नहीं। लेकिन मुस्लिम शासन के समय में गुजरात में शान्ति बनी रही, और वडनगर उसकी आर्थिक प्रवृत्तियों को लेकर उठ-खड़ा हुआ। व्यापार और कारोबार फिर से चलने लगे। उद्योग ने तेजी पकड़ी। वह काफी समृद्ध हुआ और यहाँ कला और संस्कृति का पोषण हुआ।


ताना-रीरी की अपूर्व कहानी
ताना-रीरी की कहानी विख्यात संगीतकार तानसेन से जुड़ी हुई है। महान मुग़ल बादशाह अकबर, कि जिसने सन १५२६ से १६०५ तक भारत पर शासन किया, उसके दरबार में तानसेन बड़ा गवैया था। वडनगर की ताना और रीरी नामक दो बहनें मल्हार राग उसके सच्चे स्वरुप में गाना जानती थीं। ऐसा माना जाता है कि मल्हार राग अगर उसके शुद्ध स्वरुप में गाया जाय, तो बरसात गिराने की शक्ति रखता है। अकबर के हुकम पर जब तानसेन ने दीपक राग गाया, तो उसकी असर से उसने अपने बदन की भीतर तीव्र जलन महसूस की। इस जलन को शांत करने का उपाय मल्हार था, जो वह खुद तो जानता नहीं था। सच्चे मल्हार को सुनने की तलाश में वह सारे देश में घूमता हुआ, आख़िर में ताना-रीरी की ख्याति सुनकर वडनगर आया। और वडनगर के मध्ययुगी इतिहास की एक बड़ी नाटकीय और अजीब घटना घटी। इसकी पूरी कहानी जानने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये।


पुन: ध्वंश का कालवडनगर की समृद्धि अल्पायुषी रही, क्योंकि उससे ओर हमलावर आकर्षित हुए। इस बार मराठाओं ने लूटपाट की। सन १७२६ में मराठा सरदार कन्दाजी कदम बांडे ने उस पर हमला किया। कन्दाजी बांडे ने शहर पर आक्र्मण करके उसको लूटा ईतना ही नहीं, उसने उसे जला कर राख का ढेर बना दिया। उसके बहुतेरे नागरिक नगर से पलायन कर गए। जो भाग न सके, उनको बेरहमी से कत्ल कर दिया गया। नौ साल के बाद, सन १७३५ में एक दूसरा मराठा सेनापति कन्दाजी होलकर यहाँ आया और जो बचा था वो लूट गया। उसके तुरंत बाद, सन १७३७ में वदोदरा के महाराजा दामाजी गायकवाड के भाई, प्रतापराव ने यहां आ कर लूटपाट की। ग्यारह वर्ष जितने अल्प समय में एक के बाद एक हुए ये आक्रमण ने वडनगर को पूरी तरह बरबाद कर दिया। यह नगर खंडहरों का ढेर बन गया, और वह अपने प्रमुख नागरिकों से वंचित हो गया। इस ध्वंस से यह शहर कभी पूरी तरह उभर न सका। किले की अन्दर का आज का वडनगर, मराठा सैन्यों ने खंडहरों के जो ढेर अपने पीछे छोड रखे थे उस पर जल्दबाजी में खडा किया गया नगर है।
आधुनिकीकरण की प्रक्रियापुराने समय से वडनगर विद्याभ्यास का स्थल था। गुजरात में सोलन्कीओं की सत्ता का अंत होते ही, विद्याभ्यास के अधिकतर केन्द्र नष्ट कर दिये गये अथवा तो जबरन बंद कर दिये गये। यद्यपि, वैयक्तिक विद्वानों की छोटी पाठशालाओं का अस्तित्त्व बना रहा। ये संस्कृत पाठशालाएं कही जाती थी। लेकिन वे ज्यादा छात्रों को आकर्षित न कर सकी। जब तक वडनगर मराठाओं के शासन के नीचे न आया, तब तक सामन्यतः शिक्षा में गिरावट होती रही। पुराने वडोदरा राज्य के लोकप्रिय महराजा सयाजीराव गायकवाड ने शिक्षा और स्वास्थ्य की एक अच्छी तरह सोची-समझी योजना का अमल किया।


शिक्षावडनगर को यह योजना से बहुत फायदा हुआ। नगर में दो आधुनिक विद्यालय प्रस्थापित किये गये - एक लडकों के लिये और दूसरा लडकियों के लिये। यहां वर्नाक्युलर फाइनल तक की पढाई हो सकती थी, जो कि आज की शिक्षा-प्रणालि में सातवीं कक्षा के बराबर थी।


सन १८८८ में लडकों के विद्यालय के लिये एक विशाल भवन का निर्माण किया गया; यह आज भी विद्यमान है। बाद में लडकीयों का विद्यालय का भी निर्माण हुआ।

कुछ समयांतर के बाद, सन १८९३ में, लडके और लडकीयों का एक मिश्र विद्यालय रेल स्टेशन के नजदीक शुरु किया गया। यह विद्यालय का नाम ए. वी. स्कूल अर्थात एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल था। इसमें आधुनिक पाठ्यक्रम पठाया जाता था और अंग्रेजी भाषा की शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाता था। ईन सभी विद्यालयों से एक ऐसी पीढी तैयार हुई कि जिसने नगर के व्यापार एवं उद्योग को पुनः बढावा दिया।


स्वास्थ्यमहाराजा सयाजीराव की योजना के तहत सन १८८५ में रु। १०,८९७ की लागत से एक अस्पताल बनवाया गया। इस में एक प्रसूति विभाग भी था; और अस्पताल के सभी कर्मचारियों के लिये अवास भी।

सन १९४१ में शेठ नटवरलाल मोतीलाल व्यास ने प्रसूति विभाग के लिये एक सुविधाजनक अलग भवन का निर्माण करने के लिये अपनी मातुश्री श्रीमति कीलीबाई की स्मृति में उदार दान दिया। बीसवीं सदी की शुरुआतमें सारे गुजरात में वडनगर उन चुने हुए कुछ एक नगरों में से था कि जहां सुविधाओं से सुसज्ज और निःशुल्क अच्छी सेवा प्रदान करनेवाला प्रसूति-गृह था। ईसको ले कर वडनगर में बाल-मृत्यु का आंक बहुत नीचा था। यह जानना रसप्रद होगा कि अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी को, अपनी मेडिकल ड्यूटी के अलावा, इस स्थल के तापमान और बरसात का रिकार्ड रखने का काम भी सौंपा गया था।


पुस्तकालय
सयाजीराव का मानना था कि प्रगति को ठोस बनाया जाय। अक्षरज्ञान पा कर उसको भूलाया न जाना चाहिये। ईसी लिये उन्हों ने विद्यालयों के साथ-साथ अच्छे पुस्तकालयों की सुविधा भी प्राप्त हो सके ऐसा प्रबंध किया। पुस्तकालयों के रख्र-रखाव के लिये राज्य द्वारा उदारता से धन मोहैया किया गया। सन १९११ में नगरका पहला पुस्तकालय मेहता भोगीलाल चकुलालने अपने पिताजी की स्मृति में बनवाया।

यही भवन के नजदिक में सन १९३५ में दूसरे अधिक विशाल भवन का निर्माण हुआ। यह नये आधुनिक भवन के लिये श्री पुरुषोत्तमदास नरभेराम पटेल ने उदारता से दान दिया। इस भवन के उपर रखे गये घंटाघर की आवाज सारे नगर में सुनी जा सकती है और वह आज भी काम कर रहा है।
पुस्तकालय ने नगर के पढे-लिखे नागरिकों को अपने ज्ञान की सीमाए विस्तृत करनेका अवसर प्रदान किया। नए पुस्तकालय में महिलाओं और बच्चों के लिए विशिष्ट विभाग रखे गए थे। वह शिक्षित लोगों के किये मिलने, विचार-विमर्श करने, और नगर के भावि विकास की योजनाएं बनाने का केन्द्र बना।


श्रीमति कुसुमबेन मयाभाई मेहता का सामाजिक कार्य करने के लिये सन्मान किया जाना और कुसुमबेन अपनी युवावस्था में
पुस्तकालय के यह नये भवन में एक विशाल वाचनालय और महिलाओं के किये एक बडा कक्ष बनाया गया था। चालीस के दशक की शुरुआत में यहां पर श्रीमति कुसुमबेन मयाभाई मेहता ने नगर की महिलाओं के किये सिलाई के प्रशिक्षण-वर्ग चलाये। याद रहे, उस समय में ऐसी ज्योतिमान गतिविधियां सारे देश में असाधारण सी थी।

रेलगाडी आयीश्री जेठालाल मारफतिया ने जो अभिलेख (रिकार्ड) रखा है उसके अनुसार वडनगर में रेलगाडी का आगमन करिब सन १९०७ में हुआ। उसने वडनगर को सारे देश से जुड दिया और व्यापार की सभी दिशाएं खोल दी।

अब वडनगर और उसके आसपास के प्रदेश में उत्पन्न कीया गया माल-सामान देश के दूर-सुदूर स्थलों में आसानी से भेजा जा सकता था। वैसे ही, देश के अन्य केन्द्रों से चीज-वस्तुएं यहां लायी जा सकती थीं। व्यापार तेजी से पनपने लगा और यह नगर विविध कृषि और औद्योगिक उत्पन्न का महत्त्वपूर्ण बाजार बन गया।

बिजलीवडनगर बिजली पाने में भाग्यशाली रहा। सन १९३० के दशक के अंत भाग में सारे उत्तर गुजरात में एक पाटन शहर के सिवा अन्य कहीं बिजली नहीं थी, उस वक्त वडनगर में बिजली आ गयी थी। बिजलीकरण को विका की अनिवार्य शर्त माना जाता है। वह आधुनिकता की अगुवाई करनेवाली कहलायी है। जब और लोग उनके विचार के बारे में संशयी या खिलाफ थे, तब जिस आदमी ने वडनगर में बिजली लाने का साहस किया वह शेठ मयाभाई मेह्ता थे।

वे एक दूरदर्शी नेता थे और उन्हों ने वडनगर नगरपालिका को उसके प्रमुख के रुप में कई सालों तक नेतृत्व प्रदान किया। दुर्भाग्यवश, इस प्रतिभा-संपन्न और वडनगर के सुपुत्र के अकालिक निधन से नगर की विकास-यात्रा को बाधा पहुंची।

चालीस के दशक की राष्ट्रीयता की लहर
सन १९३० और १९४० के दशकों में ब्रिटिश हकूमत से स्वतंत्रता पाने का आन्दोलन जोरों से चल पडा। सन १९४२ में अर्जुनबारी दरवाजे के नजदीक शर्मिष्ठा सरोवर के तट पर एक नया विद्यालय शुरु किया गया। उसका उद्देश्य महात्मा गान्धी के विचार अनुसार आधुनिक राष्ट्रीय शिक्षा प्रदान करना था। यह नये विद्यालय का नाम नवीन सर्व विद्यालय रखा गया और उसकी स्थापना शेठ मानचंददास कुबेरदास पटेल ने की थी। अगले कुछ ही सालों में नवीन सर्व विद्यालय विज्ञान प्रवाह की शिक्षा के लिये यह प्रदेश के एक प्रमुख उच्चतर मध्यमिक स्कूल के रुप में उभरा।

उधर, पचास के दशक की शुरुआत में ही ए. वी. स्कूल एक स्थानिय ट्रस्ट को सौंप दिया गया। यह ट्रस्ट ने नगर के लोगों, विशेषतः मुंबई और अन्य बडे नगरों में बसे वडनगरवासीओं, से उसके विकास की योजना के लिये पर्याप्त धन-दान प्राप्त किया। इसका अच्छा उपयोग करते हुए स्कूल के लिये एक आधुनिक भवन का निर्माण किया गया और स्कूल को सामान्य प्रवाह की शिक्षा के लिये एक अच्छे उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में विकसित किया गया।
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